المَكتَبَةُ الشَّامِلَةُ السُّنِّيَّةُ

الرئيسية

أقسام المكتبة

المؤلفين

القرآن

البحث 📚

الحق تبارك وتعالى يُسرِّي عن نبيه صلى الله عليه وسلم - تفسير الشعراوي - جـ ١٥

[الشعراوي]

فهرس الكتاب

- ‌ 99]

- ‌ 101]

- ‌ 102]

- ‌ 103]

- ‌ 104]

- ‌ 105]

- ‌ 106]

- ‌ 107]

- ‌ 109]

- ‌ 110]

- ‌ 4]

- ‌ 6]

- ‌ 7]

- ‌ 9]

- ‌ 10]

- ‌ 11]

- ‌ 12]

- ‌ 17]

- ‌ 18]

- ‌ 19]

- ‌ 20]

- ‌ 22]

- ‌ 23]

- ‌ 24]

- ‌ 28]

- ‌ 30]

- ‌ 34]

- ‌ 36]

- ‌ 38]

- ‌ 39]

- ‌ 40]

- ‌ 41]

- ‌ 43]

- ‌ 44]

- ‌ 45]

- ‌ 46]

- ‌ 47]

- ‌ 49]

- ‌ 50]

- ‌ 52]

- ‌ 54]

- ‌ 55]

- ‌ 56]

- ‌ 58]

- ‌ 59]

- ‌ 60]

- ‌ 61]

- ‌ 62]

- ‌ 63]

- ‌ 65]

- ‌ 68]

- ‌ 69]

- ‌ 75]

- ‌ 76]

- ‌ 78]

- ‌ 80]

- ‌ 82]

- ‌ 84]

- ‌ 86]

- ‌ 87]

- ‌ 92]

- ‌ 93]

- ‌ 95]

- ‌ 96]

- ‌ 98]

- ‌(طه)

- ‌ 2]

- ‌4]

- ‌ 10]

- ‌ 11]

- ‌ 12]

- ‌ 13]

- ‌ 14]

- ‌ 15]

- ‌ 18]

- ‌ 21]

- ‌ 25]

- ‌ 26]

- ‌ 33]

- ‌ 37]

- ‌ 42]

- ‌ 44]

- ‌ 45]

- ‌ 47]

- ‌ 48]

- ‌ 50]

- ‌ 52]

- ‌ 53]

- ‌ 55]

- ‌ 57]

- ‌ 58]

- ‌ 59]

- ‌ 60]

- ‌ 61]

- ‌ 62]

- ‌ 63]

- ‌ 64]

- ‌ 67]

- ‌ 68]

- ‌ 69]

- ‌ 71]

- ‌ 72]

- ‌ 73]

- ‌ 74]

- ‌ 75]

- ‌ 77]

- ‌ 78]

- ‌ 80]

- ‌ 81]

- ‌ 84]

- ‌ 86]

- ‌ 87]

- ‌ 88]

- ‌ 90]

- ‌ 91]

- ‌ 92]

- ‌ 94]

- ‌ 96]

- ‌ 97]

- ‌ 98]

- ‌ 102]

- ‌ 103]

- ‌ 104]

- ‌ 106] :

- ‌ 108]

- ‌ 110]

- ‌ 112]

- ‌ 114]

- ‌ 115]

- ‌ 117]

- ‌ 118]

- ‌ 124]

- ‌ 125]

- ‌ 126]

- ‌ 127]

- ‌ 128]

- ‌ 130]

- ‌ 131]

- ‌ 132]

- ‌ 133]

- ‌ 135]

- ‌[الأنبياء:

- ‌1]

- ‌ 2]

- ‌ 3]

- ‌ 4]

- ‌ 5]

- ‌ 7]

- ‌ 8]

- ‌ 12]

- ‌ 13]

- ‌ 14]

- ‌ 15]

- ‌ 17]

- ‌ 18]

- ‌ 19]

- ‌ 20

- ‌ 21]

- ‌ 22]

- ‌ 25]

- ‌ 26]

- ‌ 27]

- ‌ 28]

- ‌ 29]

- ‌ 30]

- ‌ 31]

- ‌ 35]

- ‌ 36]

- ‌ 37]

- ‌ 39]

- ‌ 40]

- ‌ 41]

- ‌ 42]

- ‌ 43]

- ‌ 44]

- ‌ 45]

- ‌ 46]

- ‌ 48]

- ‌ 49]

- ‌ 50]

- ‌ 51]

- ‌ 52]

- ‌ 53]

- ‌ 56]

- ‌ 57]

- ‌ 58]

- ‌ 59]

- ‌ 61]

- ‌ 62]

- ‌ 63]

- ‌ 64]

- ‌ 65]

- ‌ 68]

- ‌ 71]

- ‌ 73]

- ‌ 74]

- ‌ 75]

- ‌ 76]

- ‌ 79]

- ‌ 80]

- ‌ 81]

- ‌ 82]

- ‌ 83]

- ‌ 85]

- ‌ 88]

الفصل: الحق تبارك وتعالى يُسرِّي عن نبيه صلى الله عليه وسلم

الحق تبارك وتعالى يُسرِّي عن نبيه صلى الله عليه وسلم َ ما يلاقي من عنت في سبيل دعوته، كأنه يقول له: إياك أنْ ينالَ منك بُغْض القوم لك وكُرههم لمنهج الله، إياك أنْ تتضاءلَ أمام جبروتهم في عنادك، فهؤلاء ليسوا أعزَّ من سابقيهم من المكذبين، الذين أهلكهم الله، إنما أستبقى هؤلاء لأن لهم مهمة معك.

وسبق أن أوضحنا أن الذين نجوْا من القتل من الكفار في بعض الغزوات، وحزن المسلمون لنجاتهم، كان منهم فيما بَعْد سيف الله المسلول خالد بن الوليد.

يقول تعالى: {وَكَمْ أَهْلَكْنَا قَبْلَهُمْ مِّن قَرْنٍ} [مريم:‌

‌ 98]

.

كم: خبرية تفيد الكثرة، من قرن: من أمة {هَلْ تُحِسُّ مِنْهُمْ مِّنْ أَحَدٍ} [مريم: 98] لأننا أخذناهم فلم نُبق منهم أثراً يحس.

ووسائل الحِسَّ أو الإدراك كما هو معروف: العين للرؤية، والأذن للسمع، والأنف للشمّ، واللسان للتذوق، واليد للمس، فبأيّ آداة من أدوات الحسّ لا تجد لهم أثراً.

وقوله: {أَوْ تَسْمَعُ لَهُمْ رِكْزاً} [مريم: 98] الركْز: الصوت الخفيّ، الذي لا تكاد تسمعه. وهذه سُنَّة الله في المكذبين من الأمم السابقة كما قال سبحانه:{أَهُمْ خَيْرٌ أَمْ قَوْمُ تُبَّعٍ والذين مِن قَبْلِهِمْ أَهْلَكْنَاهُمْ إِنَّهُمْ كَانُواْ مُجْرِمِينَ} [الدخان: 37] .

أين عاد وثمود وإرم ذات العماد التي لم يُخلَق مثلها في البلاد؟

ص: 9205

وأين فرعون ذو الأوتاد؟ فكل جبار مهما عَلَتْ حضارته ما استطاع أنْ يُبقي هذه الحضارة؛ لأن الله تعالى أراد لها أنْ تزول، وهل كفار مكة أشدّ من كل هؤلاء؟

لذلك حين تسمع هذا السؤال: {هَلْ تُحِسُّ مِنْهُمْ مِّنْ أَحَدٍ أَوْ تَسْمَعُ لَهُمْ رِكْزاً} [مريم: 98] لا يسَعْك إلَاّ أنْ تُجيب: لا أحسُّ منهم من أحد، ولا أسمع لهم ركزاً.

ص: 9206